वैश्विक स्तर पर फैली महामारी कोरोना वायरस के कारण हुए लॉकडाउन के खत्म होते तीसरे दौर में भी सबसे ज्यादा प्रभावित यदि कोई हुआ है तो वह मजदूर वर्ग है, जिन्होंने अपने कन्धों पर ईंट का बोझ उठा कर किसी का घर या इमारत बनाई होगी. यूँ तो सरकार ने जान व जहान दोनों को बचाने पर फोकस करते हुए लोगों को संबोधित किया है, परन्तु आज भी हताश व मायूस वह मजदूर वर्ग शहर छोड़ अपने उसी घर पलायन कर रहें हैं, जो कभी पैसा कमाने की उम्मीद लिए शहर आए थे.
आज सरकार ने अपने हिसाब से लॉकडाउन में दुकानें व बाज़ार खोलने व बंद करने का अधिकार तो दिया है, परन्तु आज भी लॉकडाउन के चौथे चरण में आते-आते मजदूरों वर्ग अपने काम पर जाने का अवसर खोज रहे हैं. उनकी इस चिंतनीय स्थिति को देखते हुए अंदाजा लगाया जा सकता है कि शायद ही उन्हें अब सरकार पर भरोसा रह गया हो.
देखा जाए तो दिल्ली सरकार द्वारा भी लोगों को विश्वास दिलाया गया कि उनके लिए रहने खाने की व्यवस्था की जाएगी, उनसे किराया भी नहीं लिया जाएगा, परन्तु उनके मायूस चेहरे ने बयाँ कर दिया कि सरकार द्वारा कही बातें कितनी पूरी हुई और कितनी सिर्फ कागजों पर ही लिखी रह गयी. सरकार के अनुसार यह महाबंदी की घोषणा इस मंतव्य से की गयी है, जिससे काफी संख्या में लोग शहर छोड़ कर अपने गांव पलायन करने के चक्कर में बीमारी को और न फैला दे.
सरकार द्वारा किए गये सभी वायदे मात्र बोलने के लिए कुछ शब्द ही रहें होंगे, क्योंकि जमीनी हकीकत तो वही मजदूर जानते हैं, जिन्होंने इन मुश्किल हालातों का सामना किया है. सरकार जमीनी स्तर पर मजदूरों को सहायता देने में भी विफल रही. आखिरकार वह मजदूर कहा रहेंगे, जिनसे किराए का घर भी खाली करा दिया गया हो, क्योंकि उनके पास किराया देने के लिए पैसे ही नहीं थे. मात्र ट्रेनों की सुविधा कर देने से क्या किसी मजदूर की राह आसान हो गयी. वह उन स्टेशन तक पहुचेंगे कैसे क्या सरकार ने यह नहीं सोचा? यकीनन अब शायद ही इस भयंकर माहौल के बाद कोई मजदूर भाई सरकार पर भरोसा कर पाए.
धीरे-धीरे बदलते वक्त के साथ स्थिति भी सामान्य हो जाएगी, परन्तु जब विभिन्न फैक्ट्रीयों व अन्य कारखानों में कार्य करने के लिए लोग ही नहीं होंगे तब सरकार कहा रुख करेगी? यह सवाल सोच कर ही सरकार को फैसले लेने चाहिए थे, शायद आज उन मजदूर परिवारों को जिन समस्याओं के दौर से गुजरना पड़ा है, वो सब भी अन्य लोगों की भांति सामान्य जीवन जी पाते.