स्मृतिशेष पद्मश्री श्रीमती उषा किरण खान
बाढ़ की सच्चाई जानने के लिए मैंने उनसे बहुत कुछ सीखा है। एक संस्मरण और- यह 1976 की बेगूसराय की बाढ़ की कहानी है।
उनका कहना था कि “उस समय में मैं बेगूसराय में अपने पति श्री रामचंद्र खान के साथ रह रही थी, जो उन दिनों वहाँ के पुलिस आरक्षी अधीक्षक थे। सन 1975 में पटना में बाढ़ आयी थी, ऐसी बाढ़ जो जो बहुत लम्बे अन्तराल के बाद आया करती है और वह भी तब जब गंगा, सोन और पुनपुन एक साथ-साथ बढ़ने लगे। रामचन्द्र जी लगातार पटना की बाढ़ का मुकाबला करने में सक्रिय थे यद्यपि बेगूसराय 1975 में बचा हुआ था और उसकी बारी बाढ़-ग्रस्त होने में 1976 में आयी। तब बछवाड़ा वाला इलाका सर्वाधिक पीड़ित था। गाँव के गाँव जल-मग्न हो गये थे। अधिकांश लोग गाँव छोड़ कर सुरक्षा के लिये किसी न किसी बाँध या सड़क पर चले आये थे फिर भी कुछ गाँव टापू की तरह घिरे हुए थे जहाँ खाना-पीना तक मुहाल हो गया था। वहाँ हम लोगों ने एक महिला समिति गठित कर रखी थी। उस जमाने में वहाँ की स्त्रियाँ घरों से बाहर नहीं निकलती थीं यद्यपि स्कूल, कॉलेजों का पढ़ने और पढ़ाने वाली स्त्रियों की हमने जो समिति बनाई थी, उसमें अग्रवाल तथा उच्च जाति वर्ग की स्त्रियाँ थीं। बाजार के लोगों की पत्नियाँ तो थीं ही। हम सब ने विचारा कि अगर हम स्वयं वस्त्र और जरूरी सामग्री इकट्ठा करने के लिये बाजार में निकलेंगे तब कुछ अधिक सामग्री मिल जायेगी। सारी अवगुंठन वाली स्त्रियां मेरे ही नेतृत्व में बाजार में निकल पड़ी।
"दो ट्रक सामग्री अन्न, वस्त्र, खाद्य सामग्री, माचिस, मोमबत्ती, बिस्कुट, ब्रेड आदि जमा हो गई। यह सब अप्रत्याशित था। अब जरूरत थी बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों में राहत पहुँचाने की। गेहूँ पिसवा कर पूड़ी वगैरह सैन मिल कर बनवा लिया। कपड़े तथा चूड़ा, मूढ़ी, चना, गुड आदि लेकर हमलोग बाढ़-ग्रस्त गाँवों की सीमा पर बाँध पर शरण लिये हुए लोगों के बीच जो कुछ भी सामग्री हमारे पास थी उसे बाँटा। गाँव तो द्वीप बने हुए थे और उन तक जाने के लिये हमें नाव पर चढ़ कर जाना होता था। साठ की बहुत सी स्त्रियाँ नाव में चढ़ने में बेहद डरती थीं। मैं तो नदी-वाले के पास या यूँ कहिये कि बीच की हूँ तो मुझे डर कैसा? बहुत कम स्त्रियाँ साथ चलने को राजी हुईं। हम नाव पर चढ़ कर गाँव-गाँव घूमते रहे। स्त्रियों को ढाँढ़स बँधाते रहे और क्या करते? द्वीपों में फंसी महिलायें हमारी प्रतीक्षा करती थीं। अच्छे सम्पन्न घर थे उनके जो धन-धान्य से भरे हुए थे। उनका भी सब कुछ नष्ट हो गया था। राहत की सामग्री लेने के लिये हाथ आगे नहीं बढ़ा पाती थीं। उनका बक्सा-पेटी भी सब बह गया था, बदलने को कपड़े नहीं थे। दिन भर उनके साथ रह कर उन्हें मनाते, खिलाते और राहत लेने को रिझाते। यह काम महिला समिति की बहनें, कुछ नवयुवक और स्थानीय पुलिस कर रही थीं। एकजुट हो होकर यदि प्रयास न हुआ होता तो गड़बड़ होती। हमारे दो दिन के राहत कार्य करने के बाद सरकारी अस्पतालों की टीम, मेडिकल एसोसिएशन की टीम दवाई आदि लेकर गाँव-गाँव घूमने लगी।
"प्रशासन ने बाँध पर रहने वालों को अस्थाई छप्पर मुहैया कराया। म्युनिसिपैलिटी के लोग गाँवों की ओर डी.डी.टी. वगैरह लेकर बढ़े। हमारे पीछे-पीछे इंडियन ऑयल, इंडियन फर्टिलाइजर कम्पनी की महिला समिति की बहनें भी अपनी तरफ से राहत सामग्री लेकर सामने आईं। उसी समय मुझे याद है कि रूस से पाइप और उसे संचालनकर्ता बुलाए गये थे, गाँवों में जमे हुए पानी को लेकर बाया नदी में गिराने के लिये। बाढ़ राहत कार्य हमने लगभग एक माह चलाया होगा। जब स्थिति सामान्य हुई और प्रशासन ने पूरी तरह ध्यान देना शुरू किया तब हम लोग लौट आये।
"उस समय, मुझे याद आता है कि, हम स्त्रियाँ चाहें तो अपने प्रयासों से न सिर्फ संकट को दूर कर सकती हैं बल्कि शासन-प्रशासन की निष्क्रियता को भी चुनौती दे सकती हैं।"
श्रीमती उषा किरण खान