यूं तो महेन्द्रपुर गाँव को गंगा ने 1962 में ही काटना शुरू कर दिया था, पर इस गांव में 1963 के अगस्त माह में अचानक कटाव तेज हो गया था और पिछले एक पखवाड़े के भीतर 60 पक्के मकान यहाँ नदी में समा चुके थे। ऐसे घरों से जरूरी सामान भी निकाला नहीं जा सका था। यहाँ का लोअर, मिडिल, और उच्च विद्यालय भी नदी के गर्भ में समा गया। इस गाँव को अलग बसाने के लिये भूमि अर्जन की प्रक्रिया शुरू कर दी गयी थी। बागडोब गाँव के पास भी इसी सप्ताह कटाव शुरू हो गया था।
आमतौर पर होता यह है कि गंगा अपने एक ही किनारे पर कटाव करती है, लेकिन इस वर्ष वह परम्परा टूट गयी और नदी के दोनों तरफ कटाव जारी था। गंगा के उत्तर के कटाव पीड़ितों के लिये थोड़ी बहुत मदद पहुँच भी जाती थी लेकिन दक्षिणी तट पर तो एकदम सन्नाटा था। जो लोग उजड़ गये थे उनके न केवल पुनर्वास की समस्या थी वरन फिलहाल वह रोजी-रोटी के लिये तरस रहे थे।
21 सितम्बर तक बेगूसराय सब-डिवीज़न का यह गाँव आधा कट कर गंगा में समा चुका था और अभी तक 110 घर नदी की भेंट चढ़ चुके थे। इस कटाव से लगभग एक हजार लोग विस्थापित हो चुके थे, जिन्हें सुरक्षित स्थानों को पहुँचाया जा रहा था। विस्थापितों के लिये त्रिपाल और नावों की व्यवस्था की जा रही थी।
((आर्यावर्त-पटना, अगस्त-सितंबर, 1963))