बिहार -बाढ़-सूखा-अकाल 1958
आलेख: ईं. दीपक कुमार सिंह के सौजन्य से
1958 में भागलपुर जिले में जबर्दस्त सूखा पड़ा था। इसके बारे में विस्तृत जानकारी के लिये हमने मेहरपुर गाँव प्रखंड पीरपैंती जिला भागलपुर 96 वर्षीय वृद्ध महिला श्रीमती पार्वती देवी से बातचीत की। उन्होंने जो कुछ बताया उसको हम उन्हीं के शब्दों में यहाँ उद्धृत कर रहे हैं। उनका कहना था कि,
गाँधी जी जिस साल मरे थे, उसके नौ-दस साल बाद हमारे यहाँ अकाल जैसी हालत हो गयी थी। गेहूँ जो खेतों में हुआ था वह इतना छोटा था कि नाखून में समा जाता था। गरीबी भी उस समय इतनी थी कि आम के अन्दर की जो गुठली होती है उसे कूट कर खाते थे। इसे पीस कर आटे के तरह की रोटी भी बन जाती थी। बहियार रात में खूब रोता था।
अकाल जब पड़ा तब मेरी शादी हो चुकी थी और मैं ससुराल आ गयी थी। पानी का तो पूछना ही क्या था। उन दिनों खेतों में मटकुइयाँ (कच्चे कुएं) हुआ करते थे जिन्हें कोड़ कर लोग पानी पीया करते थे। पीने के पानी की दिक्कत हमारे यहाँ नहीं थी क्योंकि हमारे घर में तो कच्चा ही सही, पर कुआँ हुआ करता था। गरीब आदमी का काम तो मटकुइयाँ से ही चलता था। हमारे घर में भी पक्का कुआँ तो 40-45 साल पहले ही बना होगा। उसके पहले तो वही मटकुइयाँ से या कच्चे कुएँ से काम चलता था।
जिसके पास थोड़ा बहुत अनाज रहता था वह तो उसे छुपा कर रखता था कि कहीं कोई चुरा न ले। बहुत से लोग अनाज को शाम को आँगन में या घर में फैला कर रखते थे कि चोर अगर रात में आये तो उसे बटोरने में दिक्कत हो और इस काम में उसको समय लगेगा। डर तो चोर को भी लगता था कि अगर वह अनाज बटोरने लगे तो समय लगेगा और इसी बीच शोर मच गया तो उसका बुरा हाल हो जायेगा और वह लाठी-डंडे से पीट कर भगाया भी जा सकता है।
यह अकाल जेठ–बैसाख के महीने में हुआ था। बरसात के पहले मजदूर बड़े किसानों के घर में काम करके चला जाता था क्योंकि उसको मजदूरी में अनाज मिल ही जाता था। पीने के पानी की हमारे गाँव में दिक्कत नहीं थी। कोई भी विपत्ति हर जगह एक साथ थोड़े ही आती है। अभी कोरोना हुआ था न कुछ साल पहले तो हर जगह एक साथ हुआ था क्या?
चोर भी हिसाब-किताब रखते थे कि किसके घर में अनाज हुआ है किसके घर में नहीं। चोरों को पता लग जाये कि फलाने के यहाँ अनाज रखा हुआ है या खेतों में कहीं रखा हुआ है और घर नहीं पहुँचा है तो ऐसे घरों पर उनका हमला होता था। गृहस्थ भी अपना बचाव करना जानता और अनाज छिपा कर रखता था। आँगन में अनाज छींट देना उसे बचाने का एक तरीका था।
गरीब को तो मवेशी के चारे की जरूर दिक्कत थी। चारे के अभाव में बहुत से जानवर मरे होंगें। हमारे घर में तो मान लीजिये अनाज भी था और भूसा भी था पर सबके पास तो यह दोनों चीजें जरूरी नहीं है कि रही हों। चारे की कमी का यह हाल था कि बहुत से जानवरों को तो लोगों ने खूँटे से रस्सी खोल कर छोड़ दिया था कि वह चाहे जहाँ चला जाये बस दरवाजे पर न मरे। ऐसा तो अभी भी होता है कि अगर अकाल जैसी हालत बनती है तो लोग जानवरों को आखिर में खुला छोड़ ही देते हैं। सारा देश तो हरा-भरा कहीं भी नहीं है जहाँ सूखा पड़े और घर में अनाज और पशु-चारा न हो तो फिर पूरी तस्वीर बदल जाती है।
अकाल की त्रासदी इतनी जबरदस्त थी की बोतल में चावल बिका था, वह भी हमने देखा है। जानवर को चारा नहीं मिलेगा तो घर के बच्चों को दूध भी नहीं मिलेगा। तब बच्चों को मीठा पानी पिलाइये या सत्तू घोल कर उसमें मीठा डाल कर बच्चे को दीजिये। बहुत से लोगों को तो गोइंठा जला कर उसकी राख को खाना पड़ गया था। जब खाने को कुछ भी नहीं हो तो गोइंठे की राख बड़ी स्वादिष्ट लगती है। कभी खाकर देखिये तो पता लग जायेगा। गरीबी अगर अपने चरम पर पहुँच जाये तो उससे निपटने का उपाय भी वैसा ही था।
गरीबों के पास जो भी सामान था वह बिकना शुरू हो गया था। वह अगर नहीं बेचे तो अनाज कहाँ से उसको मिलेगा? बरतन-भाँड़े भी गिरवी रखे जाते थे यह तो हमने भी सुना था। पर गहना रेहन रखने की लोगों की औकात ही कहाँ थी। उस समय किसी के पास वैसी कीमती चीज होगी तभी तो वह महाजन के पास जायेगा। गरीबों को वह सब कहाँ नसीब था।
रात में लोग गोली-बन्दूक लेकर समर्थ लोगों का घर लूट लेते थे। चोरों का आतंक जबरदस्त था। जिसके घर में ड्योढ़ी हो, दरवाजा हो वह सूरज ढलने के पहले सब बन्द करके घर में बैठ जाता था। फिर वह दरवाजा किसी भी अजनबी के लिये नहीं खुलता था। डर था कि चोर सब आयेंगे तो सब लूट करके चले जायेंगे। लूट-पाट की बातें हम लोग अक्सर सुनते थे। गहना-गुरिया, रुपया-पैसा सब चला जाता था और कभी-कभी तो मौत भी सुनने में आती थी। हमारे गाँव में तो ऐसी घटना नहीं हुई पर पास के ताड़र गाँव में बाद के दिनों में हुई थी। इस तरह की बातें घर के अन्दर बहुत कम पहुँचती थीं। यह चर्चा आदमियों के बीच में ही होती थी।
उन दिनों अगर फसल ठीक रहे तो धान खूब होता था। हमलोग अरवा चावल आमतौर पर नहीं खाते हैं, उसिना हुआ चावल ही हमारे यहाँ चलता है। धान से उसिना चावल बन जाता था। थोड़ा बहुत अरवा चावल खीर बनाने या मांगलिक अवसरों पर काम आता है उसे ढेंकी में कूट कर अलग रख लेते थे। धान, गेहूँ, अरहर, खेसारी, बूट (चना), मकई, मडुआ, वगैरह खूब होता था। घर में ही गेहूँ जाँते में पीस लिया जाता था और घर में ही बूट और जौ-गेहूँ से सत्तू बनता था जिसे जाँते में ही तैयार कर लिया जाता था।
शादी-ब्याह में अरहर, खेसारी, चना वगैरा गाँव के कई घरों में बाँट दिया जाता था तो आपसी सहयोग से दर-पीस कर कर वापस आ जाता था। आज की तरह उन दिनों आटा चक्की यहाँ थोड़े ही थी। अब तो शहर के साथ-साथ गाँव में भी बहुत मिलें खुल गयी हैं, अब उतनी मेहनत नहीं करनी पड़ती है।
उस साल भिखमंगे बहुत हो गये थे। अकाल था तो लोगों को काम नहीं मिलता था। ऐसे लोग भीख माँगने को मजबूर हो गये थे। हमारी सास टोकरी में धान, गेहूँ, मकई आदि दरवाजे पर रखवा देती थीं। जिसे जितना चाहिये ले जाओ। हमारे यहाँ छः हल की खेती थी। अब काम करने के लिये आदमी नहीं मिलता। बड़े-बड़े बैल, घोड़े आदि हमारे ससुर के पास थे और वह घोड़े की सवारी भी करते थे। दूध-दही की उन दिनों हमारे यहाँ कोई कमी नहीं थी। परिवार तब भी बड़ा था और अब बँटवारे के बाद भी बहुत कुछ बचा हुआ है लेकिन एक जगह तो नहीं हैं।
कोई पर्व त्यौहार पड़ता था तो ढेर सारा चूड़ा भिगा दिया जाता था। घर का गुड था। जितने कारिन्दे थे उन सबका पूरा परिवार आकर खाता-पीता था और थाली भर कर ले करके भी जाता था। अच्छी रौनक रहती थी। अनाज की उधारी भी चलती थी। अगर कोई एक मन अनाज लेकर जाये तो उसकी जब फसल कटती थी तब वापस दे देता था। तब उसे दोबरी (दो मन) देना पड़ता। किसी को एकदम खाने-पीने के लिये अनाज न हो और माँगने के लिये आ जाये तो जो भी थोड़ा बहुत ले जाता था वह आमतौर पर फसल कटने पर लौटा देता था। ऐसे लोगों पर दोबरी का नियम नहीं लगता था।
यहाँ जमीन के नीचे पानी बहुत कम गहराई पर मिलता है। दो ढाई फीट खोद दिया जाए तो नम मिट्टी मिल जाती है। थोड़ा अधिक खोदने पर पानी मिल जाता था। पानी की दिक्कत अकाल में भी नहीं थी। हमारे गाँव के पास से गंगा जी से फूटी एक धार बहती थी जिसका नाम बरमसिया था। उसकी वजह से पानी की दिक्कत हम लोगों को नहीं थी।
गंगा से भोरंग धार हमारे गाँव के पश्चिम से निकलती है और यह धारा पुनः पीरपैंती होते हुए कहलगाँव में जाकर वापस गंगा में मिल जाती है। इस धारा की लम्बाई 10-15 किलोमीटर के आसपास होगी। धारा का तो कोई नियम नहीं होता कि वह कहाँ से फूटेगी और कहाँ वापस जाकर नदी में मिल जायेगी। हमारा गाँव बहुत ऊँचाई पर है। यहाँ गंगा का पानी नहीं आ पाता है। बाढ़ उतनी समस्या नहीं है।
((श्रीमती पार्वती देवी))