बिहार में स्वतंत्र भारत में पहला घोषित अकाल 1966-67 में पड़ा था, जिसका सर्वाधिक प्रभाव गया, हजारीबाग और पलामू जिलों पर पड़ा था। इसके बारे में विशेष जानकारी के लिए हमने गया जिले के औरंगाबाद सब-डिवीजन के नबीनगर थाने के मोहरकरमा गाँव के श्री गुप्तेश्वर प्रसाद सिंह से सम्पर्क किया और उन्होंने जो कुछ भी बताया उसे हम उन्हीं के शब्दों में उद्धृत कर रहे हैं।
उनका कहना था कि, ‘हमारा गाँव तत्कालीन गया (वर्तमान औरंगाबाद) जिले के डेहरी-नबीनगर मार्ग पर पड़ता है और औरंगाबाद से करीब 40 किलोमीटर के फासले पर स्थित है। गोमो और डेहरी के बीच एक पैसेंजर गाड़ी आती-जाती थी। उसी से हमारे गाँव के स्टेशन बड़की सलैया तक दिन में एक बार आना-जाना सम्भव था। बस तो तब इधर से चलती ही नहीं थी। बस पकड़ने के लिये इटावा गाँव तक जाना पड़ता था, जो हमारे गाँव से दस मील दूर है और यह रास्ता पैदल तय करना पड़ता था। कभी रात में बस को देर हो गयी तो दस किलोमीटर अंधेरे में पैदल अपने गाँव आना पड़ता था। डेहरी में ट्रेन छूट जाये तो गाँव 40 किलोमीटर दूर पड़ता था। तब रास्ते जरूर सुरक्षित थे और इतना जरूर था कि तब नाते-रिश्ते जिन्दा थे और किसी भी परिचित या रिश्तेदार के यहाँ रुकना आसान और सहज था।
उस साल (1966-67) में जबरदस्त अकाल पड़ गया था। हमारा गाँव पुनपुन नदी के दाहिने किनारे पर बसा हुआ है। बरसात के बाद पुनपुन का पानी सूख जाने के चलते नदी में बाँध बना दिया जाया करता था, जिससे गाँव वालों के लिये जरूरी पानी हर समय उपलब्ध रहे। यह बाँध आमतौर पर अगहन या पौष में बाँध दिया जाता था। नदी को बाँधने से पानी पीने के लिये आस-पास के गाँवों से भी यहाँ जानवर आ जाते थे। उस साल धान वर्षा के अभाव में सूख गया था। अकाल के समय आदमियों को तो सरकार की तरफ से रिलीफ का अनाज के नाम पर लाल गेहूँ और पाउडर का दूध पास के स्कूल से मिल जाता था पर सबको कहाँ से मिल पाता? जिसे नहीं मिलता या कम मिलता उसे अकाल में गेहूँ का दर्रा भी खाना पड़ गया था। जानवरों को बहुत दिक्कत हो गयी थी। पीपल के पेड़ तब हमारे यहाँ बहुत थे तो जानवरों को पीपल की डालियाँ काट कर खिलाना पड़ गया था।
मेरे बड़े भाई भुरकुंडा में सेंट्रल कोल-फील्ड में काम करते थे। उस इलाके में जानवरों के लिये चारा मिल जाता था तो वहीं से रेलगाड़ी से यहाँ हम लोग चारा ले आते थे। भुरकुंडा वर्तमान झारखंड में है और हमारे यहाँ से करीब तीन-साढ़े तीन सौ किलोमीटर दूर होगा। उसी से किसी तरह जानवरों का गुजर-बसर हुआ। हमारे कुछ सम्बन्धी पलामू में हैं। उनके यहाँ तो और भी बुरी हालत हो गयी थी। जानवरों के लिये गृहस्थ कहाँ तक चारा इकट्ठा करके रखेगा? जानवरों को चारा नहीं मिलता था तो उनका दूध भी घट गया था। चाय पाउडर के दूध से भी बनती थी। नींबू के पत्ते की चाय हम लोगों ने भी पी थी। वैसे इसका उपयोग करने वाले तब बहुत कम हुआ करते थे। ज्यादातर लोग चाय जानते भी नहीं थे।
अगले साल 1967 में जाकर कुछ राहत हुई। 1966 में रोपनी तक तो बारिश हुई और उसके बाद पानी प्राय: बरसा ही नहीं। धान खेतों में ही जल गया। रब्बी की तो बोअनी भी नहीं हो पायी थी। जानवरों के चारे के लिये सरकार से कोई मदद नहीं मिली थी। उसका प्रबन्ध हमीं लोगों को करना पड़ा था।
हम लोगों के यहाँ मजदूर बहुत कम थे और उस समय ट्रैक्टर तो था ही नहीं। हमारे यहाँ तो मजदूर पलामू से आते जाते थे, जिनकी संख्या करीब 500 से 1000 तक पहुँच जाती थी जिनके रहने-सहने खाने-पीने का इन्तजाम हमारे लोग कर दिया करते थे। रोहिणी नक्षत्र और कटनी के समय उनकी संख्या अधिक हो जाया करती थी। जाते समय उनको मजदूरी दे दी जाती थी और यह मजदूरी भी अधिकतर अनाज की शक्ल में दी जाती थी। पलामू की हालत तो हमसे भी बुरी थी। वहाँ तो जानवरों को नीम का पेड़ काट कर जानवरों को उसकी पत्ती खिलाने तक की नौबत आ गयी थी। जंगल तक सूना हो गया था। वहाँ पानी की भी उतनी ही दिक्कत थी। जानवरों को बाहर भेज नहीं सकते थे।
हमारे गाँव में उसे समय दो ही कुएं थे। एक-आध नलकूप सरकार ने आसपास में बैठा दिये थे। पुनपुन नदी की पेटी में बालू को खोद-खोद कर दो चार फीट पर पानी मिल जाता था, उसी पानी को हम लोग प्रयोग में लाते थे। लोगों को पीने का पानी कुओं से और नदी की पेटी खोद कर निकाला गया पानी जानवरों को दे दिया जाता था। कुओं का पानी नीचे चला गया था पर सूखा नहीं था। नल तो था ही नहीं पर नदी खोदने पर पानी मिल जाता था। अब तो ट्यूबवेल हो गया है तो नदी के नीचे का पानी भी सूख गया। पुनपुन के किनारे सामान्य दिनों में कोई दिक्कत नहीं थी। यह नदी औरंगाबाद-पलामू की सीमा से निकली है। इसलिये पुनपुन से छेड़-छाड़ होने पर भी हम लोगों को कोई खास असर नहीं पड़ता है। नहर का पानी अपने आसपास के भूमिगत पानी को सूखने नहीं देता।
हमारे इलाके में अनाज के लूटपाट की कोई घटना नहीं हुई थी। हमारा इलाका शान्त क्षेत्र था और सभी लोग एक दूसरे की मदद करने वाले थे। आज की तरह तब माहौल नहीं था। हम लोग सतयुग से कलयुग में आ गये।
श्री गुप्तेश्वर प्रसाद सिंह