प्रतिवर्ष कार्तिक मास की षष्टी तिथि को छठ पूजा का समस्त भारतवर्ष में, खासतौर से उत्तर और उत्तरपूर्व भारत में बड़े स्तर पर आयोजन होता है. भगवान सूर्य देव की उपासना का यह पर्व एक प्रकार से संकेतक भी है कि जो साक्षात ईश्वर के रूप में सम्पूर्ण धरती को अपनी किरणों से प्रकाशित एवं पोषित कर रहे हैं, हम सभी भक्तिभाव से उन्हें धन्यवाद दें. पूर्वोत्तर भारत में इस पर्व की महत्ता सर्वाधिक है, जहां लोक प्रचलित भाषा में छठी मैया कहकर यह पूजन किया जाता है.
मान्यता है कि छठ पूजा में जिन छठी मैया की आराधना की जाती है, वह सूर्य भगवान की बहन है. इसके साथ ही प्राचीन ग्रन्थों के अनुसार देवी दुर्गा के छठे स्वरुप मां कात्यायनी को ही छठ माता कहा जाता है, जिनके पूजन से संतान सुख की प्राप्ति होती है और परिवार में कुशल मंगल बना रहता है.
छठ पर्व का दूसरा दिन – खरना और लोहंडा
कार्तिक शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को छठ पर्व का दूसरा दिन मनाया जाता है, जिसे खरना या लोहंडा के नाम से जाना जाता है. इसमें व्रती पूरा दिन उपवास रखते है और सूर्यास्त से पहले पानी की एक बूंद तक ग्रहण नहीं करते हैं. संध्याकाल में चावल, गुड़ और गन्ने के रस का प्रयोग कर खीर बनाई जाती है, साथ ही मीठी पूरी, सादी पूरी इत्यादि भी अपने अपने पारिवारिक संस्कारों के अनुसार बनाये जाते हैं. भोजन बनाने में नमक और चीनी का प्रयोग नहीं किया जाता है, इन्हीं दो चीजों को पुन: सूर्यदेव को नैवैद्य देकर उसी घर में ‘एकान्त' करते हैं अर्थात् एकान्त रहकर उसे ग्रहण करते हैं. एकान्त से खाते समय व्रती के लिए किसी तरह की आवाज सुनना पर्व के नियमों के विरुद्ध है, इसलिए प्रसाद ग्रहण करते समय व्रती के पारिवारिक जन उसके आस पास नहीं होते.
व्रती प्रसाद ग्रहण करने के उपरांत अपने सभी परिवार जनों एवं मित्रों-रिश्तेदारों को वही ‘खीर-पूरी' का प्रसाद खिलाते हैं, इसी प्रक्रिया को खरना या लोहंडा कहा जाता है. इसके बाद अगले 36 घंटों के लिए व्रती निर्जला व्रत रखते हैं और मध्य रात्रि को व्रती छठ पूजा के लिए बनने वाला विशेष प्रसाद ठेकुआ बनाते हैं, जो अंतिम अर्घ्य के बाद सभी में वितरित किया जाता है.